खेती से विकास की राह
बिहार के विकास का सवाल आजादी के 74 सालों बाद भी कायम है। चुनाव के बाद जब सरकारें बनती हैं, तो आमजन के भीतर उम्मीद की किरण पैदा होती है।लेकिन पांच साल बीतते-बितते वह उम्मीद निराश में बदल जाती है।लोग कहने लगते हैं, 'सब एक तरह के हैं।' आम लोग तुलना करने लगते हैं कि आमुक-आमुक उम्मीदवार में ज्यादा ईमानदार कौन है?
यह भी अजीब लगता है, जब आज विकास के मॉडल को लेकर बात होती है। पूछा जाता है कि किस मॉडल से बिहार का विकास होगा? यह सवाल उसमें अंतर्निहित जवाब का संकेत भी कम देता है। इसका मतलब यह हुआ कि अब तक हम जिस विकास मॉडल पर चले, वह कारगर नहीं हुआ। वस्तुतः इसके लिए राज्य का सामाजिक परिवेश, सरकार की नीतियां और भ्रष्ट प्रशासनिक व्यवस्था जिम्मेदार रही है। तुर्रा यह है कि सरकारें सत्ता में आती रहीं और विकास के दावें करती रहीं। आखिर विकास हुआ, तो राज्य की सिंचाई परियोजनाओं की दशा ऐसी क्यों है? स्वास्थ्य शिक्षा, कानून व्यवस्था, ग्रामीण अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर हम पिछड़े क्यों है?
यह विचार करने लायक पहलू है कि केंद्र अथवा राज्य की विकास योजनाओं का लाभ लोगों तक उस रुप में नहीं पहुँच पाता। लेकिन, जैसे ही लोग नक्सली या माओवाद के नाम पर संगठित होते हैं, तो उन इलाकों में विकास की गति तेज हो जाती है। कुछ साल पहले जहानाबाद के सिकरिया गांव सुर्खियों में था। वहां की सामंती व्यवस्था और अत्याचार के खिलाफ गरीब संगठित हुए। राज्य में सत्ता की बागडोर संभालने के बाद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने उस गांव को विकास योजनाओं को विकास से जोड़ा। यह अच्छी शुरुआत थी। लेकिन सतही तौर पर सरकारी योजनाओं का आधे-अधूरे तरीके से सफल होने का अभिप्राय नक्सलवाद या माओवाद का समाधान समझना सही नहीं होगा।
राज्य के विकास के लिए कृषि में उत्पादन संबंधों को ठीक करना होगा। भूमि संबंधी मसले विकास में बड़े अवरोधक की तरह है। सामंती ढांचा कृषि उत्पादन को प्रभावित कर रहा है। ऐसे में दूसरी हरित क्रांति के सपने का कोई मतलब नहीं रह जाता। जमीन पर हकदारी को लेकर भी विचार करना होगा। यह देखना होगा कि भूमि सुधार का कानून लागू करने वाला पहला राज्य कृषि में दूसरे राज्यों की तुलना में पिछड़ा क्यों है? सच तो यह भी है कि हजारों एकड़ जमीन मठ और मंदिर के नाम से है। इतना तय है कि कृषि क्षेत्र को केंद्र मानकर राज्य में विकास का मॉडल खड़ा करना होगा। इसी से गांव की अर्थव्यवस्था की विषमता दूर होगी।और सामाजिक भेदभाव भी दूर होगा। मौजूदा सरकार ने महिलाओं की पंचायतों में आरक्षण देकर दासता की बेड़ियों को काटने का प्रयास किया है।
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