भारतीय संस्कृति, संस्कृत और योग में निहित है विश्व कल्याण की भावना : डॉ. भूषण कुमार उपाध्याय

मोतिहारी। महात्मा गांधी केंद्रीय विश्वविद्यालय के मानविकी एवं भाषा संकाय के द्वारा 'संस्कृत - संस्कृति एवं योग' विषय पर विशिष्ट व्याख्यान आयोजित किया गया । इस व्याख्यान में अध्यक्षता विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो० संजय श्रीवास्तव ने किया तथा  मुख्यवक्ता महाराष्ट्र के पूर्व पुलिस महानिदेशक डॉ भूषण उपाध्याय रहे । मानविकी एवं भाषा संकायाध्यक्ष प्रो० प्रसून दत्त सिंह ने अतिथियों का स्वागत वक्तव्य दिया, आपने कहा कि आज के मुख्यातिथि एवं वक्ता महाराष्ट्र के पूर्व पुलिस महानिदेशक डॉ भूषण कुमार उपाध्याय जी संस्कृत विषय के विशिष्ट अध्येता रहे हैं । आपने संस्कृत और योग का विशिष्ट अध्ययन किया है और इन विषयों पर शोध करने के साथ ही प्रसिद्ध पुस्तकों का लेखन भी किया है । आपकी उपस्थिति से विश्वविद्यालय कृतकृत्य हो गया है । तदनन्तर समस्त समागत अतिथियों एवं विश्वविद्यालय के प्राचार्यों और छात्रों का समेकित स्वागत करते हुए इस व्याख्यान के विषय "संस्कृत, संस्कृति और योग" की प्रस्तावना रखी। 
मुख्यवक्ता डॉ भूषण कुमार उपाध्याय जी ने कहा कि भारतीय संस्कृति सभी समुदाय के लोगों की मंगलकामना करती है जबकि अन्य किसी समुदाय, वर्ग, जाति, पन्थ में ये बात नहीं दिखलाई पड़ता है । यह बात इस श्लोक से स्पष्ट भी हो जाता है -  "अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम् । उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्" । वहीं सर्वत्र मंगलकामना के साथ ही जन समुदाय के अतिरिक्त प्रकृति में भी शान्ति की स्थापना की बात की गई है । यहां विश्व के सभी समुदाय, वर्ग के सुख-समृद्धि की बात को बताया गया है - 'सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः ।' महाकवि कालिदास ने भी रघुवंश महाकाव्य के मंगलाचरण में ही जगत् के परमेश्वर कहकर भगवान् शंकर की वन्दना की गई है - जगतः पितरौ वन्दे पार्वतीपरमेश्वरौ । इससे स्पष्ट होता है कि भगवान् शंकर के नामोल्लेख मात्र से केवल संस्कृत साहित्य या भारत के ही नहीं अपितु जगत् के परमेश्वर कहने से ही विश्व कल्याण की भावना दृष्टिगत होती है । डॉ भूषण ने आगे बताया कि अंग्रेजों के आने के पूर्व भारत विश्व में सबसे समृद्ध देश था और शिक्षा का प्रतिशत 90% था । भारत में तत्कालीन समय में गणित, आदि विषय पढ़ाए जाते थे । यहां त्याग और तपस्या का धन था, यही कारण है कि भारत ने कभी भी भारत से बाहर आक्रमण नहीं किया । तत्कालीन समय में कपड़े, मसाले इत्यादि का व्यापार भारत से बाहर विश्व में बहुत प्रसिद्ध था । डॉ उपाध्याय ने और कहा कि आज धर्म और रिलिजन दोनों को एक कहा जाता है जबकि सत्य, अहिंसा, मानवता इत्यादि धर्म है तथा एक विशिष्ट पन्थ में विश्वास करना ही रिलिजन है । वहीं भारतीय शास्त्रों में किसी भी पन्थ, समुदाय विशेष का समर्थन नहीं करता है । आपने बतलाया कि योग के द्वारा किसी भी व्यक्ति का जीवन मात्र 15 दिन में बदल सकता है । गीता में भी भगवान् श्रीकृष्ण ने बतलाया है कि योग में स्थित होकर कर्म करने पर बल दिया गया है । योग से शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक विकास में भी वृद्धि की जा सकती है ।  योग हमारे जीवन का लगाम है । अतः स्पष्ट है कि भारत में संस्कृत, संस्कृति और योग वैश्विक स्तर पर सुख, शान्ति, समृद्धि की बात करता है । 
महात्मा गांधी केन्द्रीय विश्वविद्यालय के माननीय कुलपति प्रो. संजय श्रीवास्तव ने अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में कहा कि भारतीय संस्कृति हमें विनम्रता और सम्मान करना सिखाती है। प्राचीन भारतीय इतिहास और संस्कृति में हमें विभिन्न समस्याओं का समाधान मिल जाता है । श्रीमद्भगवद्गीता का अध्यरन सभी को अवश्य ही करना चाहिए क्योंकि गीता हमें कर्मों में कुशलता को बतलाती है - 'योगः कर्मसु कौशलम्' । विवेकानन्द ने भी कहा था कि वेद कभी गलत नहीं हो सकते हैं । अतः भारतीय संस्कृति को जानने हेतु संस्कृत विषय के अन्तर्गत वेद, उपनिषद्, आरण्यक, वेदान्त, षड् दर्शन इत्यादि का अध्ययन अवश्य ही करना चाहिए । प्रो. श्रीवास्तव ने कहा कि योग एक दर्शन है और यह दर्शन आध्यात्म पर आधारित है । नवीन ज्ञान का सृजन और आध्यात्मिक आदि विकासों के उन्नयन हेतु संस्कृति और योग का अध्ययन एवं अनुपालन करें ।
कार्यक्रम का सफल संचालन संयोजक डॉ उमेश पात्रा जी ने किया । धन्यवादज्ञापन संस्कृत विभागाध्यक्ष डॉ श्याम कुमार झा ने प्रस्तुत किया। संस्कृत विभाग के शोधार्थी सुखेन घोष ने वैदिक मंगलाचरण तथा गोपाल कृष्ण मिश्र ने लौकिक मंगलाचरण किया । यह व्याख्यान विश्वविद्यालय के वृहस्पति सभागार में सम्पन्न हुआ, जिसमें विभिन्न विभागों के प्राचार्य गण और सैकड़ों छात्र उपस्थित रहे ।

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