शोधार्थी गिरीश शास्त्री ने 'भारतीय लोककला के बदलते आयाम' विषय पर पुस्तक संपादित, शोधार्थी रहितांश सह संपादक

भारतीय संस्कृति 'विविधता में एकता' की प्रतीक है। यही कारण है कि हमारे हर प्रदेश और उसके विविध अंचलों में लोक संस्कृति के नानाविध रूप देखे जा सकते हैं। ये नानाविध रूप आम जन के उत्साह, उमंग और उसके कला प्रेम को अभिव्यक्त करते हैं।कोविड काल में लोक कलाकारों व लोक कलाओं के लिए नई चुनौतियां भी उभरी हैं। 
   यह सुखद संकेत है कि हमारे देश के युवा मीडिया कर्मियों में आज लोक संस्कृति के प्रति विशेष अनुराग का भाव बढ़ता जा रहा है। राजस्थान विश्वविद्यालय के पत्रकारिता के विद्यार्थी रहे और वर्तमान में बाबासाहेब भीमराव अम्बेडकर विश्वविद्यालय (केन्द्रीय), लखनऊ के शोधार्थी गिरीश शास्त्री ने 'भारतीय लोककला के बदलते आयाम' विषय पर पुस्तक संपादित की है। गिरीश शास्त्री साहित्य की विविध विधाओं में भी वे निरंतर लिख रहे हैं । पुस्तक के सह संपादक रोहिताश्व कुमार है जो महात्मा गांधी केन्द्रीय विश्वविद्यालय, मोतिहारी, बिहार के मीडिया अध्ययन विभाग में शोधार्थी है।
पुस्तक का विमोचन इंस्टीट्यूट ऑफ डवलपमेंट स्टडीज, जयपुर के निदेशक प्रोफेसर मोहना कुमार ने किया। साथ में महात्मा गाँधी केन्द्रीय विश्वविद्यालय, मोतिहारी के असिस्टेंट प्रोफेसर रामलाल बगड़िया और राजस्थान केन्द्रीय विश्वविद्यालय के शोधार्थी प्रेम कुमार भी उपस्थित रहे। 
पुस्तक की भूमिका प्रख्यात प्रोफेसर संजीव भानावत ने लिखी है। प्रोफेसर संजीव भानावत ने दोनों लेखकों को उज्जवल भविष्य के लिए शुभकामनाएँ दी। 
पुस्तक में मुख्यत: देश के युवा शोधार्थियों के आलेख संकलित किए गए हैं।। यह कृति विभिन्न प्रदेशों के युवा शोधार्थियों की भारतीय लोक सांस्कृतिक परंपराओं के प्रति गहरी समझ को स्पष्ट करती है। विभिन्न प्रांतों की लोक धर्मी कलाओं का बहु आयामी विवेचन इस कृति की प्रमुख विशेषता है।

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